
बचपन की राखी और आज में बहुत ज्यादा फ़र्क हो चुका है। बचपन की राखी..मुझे आज भी याद है जब में 7 साल का था तो राखी का बहुत ज्यादा इन्तजार करता था क्योंकि मुझे अलग अलग तरह की राखी को पहनने का बड़ा शॉक था। रक्षाबंधन से 2-3 दिन पहले से ही में सोच लेता था की मुझे कौन कौन सी राखियाँ पहननी है। मुझे तो बचपन में राखियों में सबसे ज्यादा घड़ी वाली राखी पहनने में बड़ा अच्छा लगता था। हर बार में अपनी छोटी बहन को बोलता था की घड़ी वाली राखी ही लेकर आना क्योंकि में उसको राखी भी मानता था और घड़ी भी समझ लेता था। भले ही उसमे हमेसा एक ही टाइम होता था लेकिन बचपन में क्या टाइम देखना। बस हाथों में घड़ी होनी चाहिए दोस्तों को दिखाने के लिए। घड़ी वाली राखी के साथ साथ एक और तरह की राखी मुझे बेहद पसंद थी, जिसमे टेडी बना रहता है। लेकिन वो राखी बड़ी मुश्किल से मिलती थी, 20 दुकानों में जाकर ढूंढना पड़ता था फिर मिलती थी किसी खास दूकान में।
बचपन की राखी से एक और बात याद आई है। जब हम छोटे थी तब राखियों का बड़ा शोक हुआ करता था। साथ के दोस्तों से शर्त लगाई जाती थी की किसके हाथों में ज्यादा राखी है। में कोशिश करता था की जितनी ज्यादा राखी बंधवा सकूँ तो अच्छा है। और अगर मुझे लगता था की में शर्त हार रहा हूँ, तो में खुद ही बहुत सारी राखियाँ पहन लेता था और पूरी कलाई राखियों से भर जाती थी। स्कूल में भी में सबको कहा करता था की सब मुझे राखी पहनाओ, क्योंकि हमारी शर्त जो लगी थी।
ये तो थी बचपन की बातें लेकिन आज न बचपन रहा न ही वो बचपन की राखियाँ, न घड़ी न ही टेडी। आज भी जब में वो सब बातें सोचता हूँ तो लगता है की बचपन बहुत मासूम होता है। क्योंकि आज में सिर्फ अपनी बहन के हाथो से राखी पहनना पसन्द करता हूँ, राखियों से हाथ भर जाये अब ये मुझे भाता नहीं है। और न ही अब में अपनी कॉलज की लड़कियों को कहता हूँ की मुझे राखी पहनाओ। हसीं भी आती है सोचकर लेकिन याद भी करता हु उन दिनों को जब राखी को हम घड़ी समझकर पहना करते थे। बचपन की राखी आज भी याद है और शायद जिंदगी भर याद रहेगी।
बचपन की राखी से एक और बात याद आई है। जब हम छोटे थी तब राखियों का बड़ा शोक हुआ करता था। साथ के दोस्तों से शर्त लगाई जाती थी की किसके हाथों में ज्यादा राखी है। में कोशिश करता था की जितनी ज्यादा राखी बंधवा सकूँ तो अच्छा है। और अगर मुझे लगता था की में शर्त हार रहा हूँ, तो में खुद ही बहुत सारी राखियाँ पहन लेता था और पूरी कलाई राखियों से भर जाती थी। स्कूल में भी में सबको कहा करता था की सब मुझे राखी पहनाओ, क्योंकि हमारी शर्त जो लगी थी।
ये तो थी बचपन की बातें लेकिन आज न बचपन रहा न ही वो बचपन की राखियाँ, न घड़ी न ही टेडी। आज भी जब में वो सब बातें सोचता हूँ तो लगता है की बचपन बहुत मासूम होता है। क्योंकि आज में सिर्फ अपनी बहन के हाथो से राखी पहनना पसन्द करता हूँ, राखियों से हाथ भर जाये अब ये मुझे भाता नहीं है। और न ही अब में अपनी कॉलज की लड़कियों को कहता हूँ की मुझे राखी पहनाओ। हसीं भी आती है सोचकर लेकिन याद भी करता हु उन दिनों को जब राखी को हम घड़ी समझकर पहना करते थे। बचपन की राखी आज भी याद है और शायद जिंदगी भर याद रहेगी।
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