इलेक्शन का समय नजदीक आ गया है और हर तरफ चुनावी माहौल बना हुआ है ऐसे में हर राजनेता और राजनीतिक पार्टी आम लोगों से अपने लिए वोट मानती नजर आ रही है, हर बार की तरह जानता से वादें किये जा रहे है, विकास की लंबी लंबी घोषणाएं कर रहे है, नेताजी सोच रहे है कि जनता तो सिर्फ घोषणयों से ही बेहल जाती है, नहीं साहब..! अब जनता की बारी है हर चीज़ का हिसाब लेगी। पब्लिक को सब कुछ पता होता है कि कौन क्या करता है और क्या बोलता है। नेता लोग सिर्फ अपनी जेब भरने के लिए राजनीती में आते है लेकिन दिखाते ऐसे है कि वो सिर्फ जनता के लिए ही इस छेत्र में आये है।
विधानसभा चुनाव की डेटशीट आ गयी है, बात करे उत्तराखंड की तो यहाँ मतदान 15 फरबरी को होने है, यानि की 15 फरबरी को आम जनता एक एक झूठे वादे का हिसाब लेगी। लेकिन एक बात बहुत चुभती है कि क्या राजनीती में यही सब होता है, यानि की झूठे वादे, घोषणाएं और सीट के लिए उथल-पुथल , अरे साबह.. लोगों की आपसे बहुत उम्मीदें होती है कि आप उनके लिए दिन-रात काम करोगे, जहाँ तक विकास नहीं पहुँचा, वहां विकास लेकर आओगे लेकिन हर बार जनता को सिर्फ धोख़ा ही मिलता है क्योंकि जीतने के बाद तो नेता लोग आम पब्लिक को अपने आस-पास भी नहीं भटकने देते। मतलब की अपना काम बनते ही जनता को भूल जाना कोई इन नेतायों से सीखे, ये गुण हर किसी के पास नहीं होता ये सिर्फ नेताओं के पास होता है। कहीं-कहीं ये भी देखने को मिलता है कि नेता जी सिर्फ तभी चेहरा दिखाते है जब वोट माँगने के लिए आते है, उसके बाद तो कौन नेताजी?कहाँ है नेताजी? ये स्तिथि इस वक़्त हमारे ही देश में है जहाँ विकास नेताओं के भरोसे होता है और नेता सरकार भरोसे। अब सवाल उठता है कि अब पब्लिक क्या करे? सही बात ये है पब्लिक किसको चुने क्योंकि आज तो हर कोई इन्ही नेताओं की तरह है, जब अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता। चलिए एक बार फिर देखते है की इस बार जनता किसपे भरोसा करती है, वैसे ये तो वो भी जानते है कि उनके भरोसे पर उतरना किसी नेता के बसके नहीं है लेकिन अधिकार है वोट डालना तो डालना तो पड़ेगा ही।